Saturday 17 September 2011

गांव की यादें














 वंदना अवस्थी दूबे
वो ज़मीं वो आसमां, वो चांद तारे गांव में
देखिए जाकर कभी दिलकश नज़ारे गांव में
जी हां, हमारा गाँव, जहां हमारे दादा-परदादा रहे. पुश्तैनी मकान, ज़मीन सब वहीं है. ये अलग बात है, कि हमें गाँव में रहने का मौका केवल छुट्टियों में मिलता था, वो भी तब तक जब तक हमारे ताऊ जी( श्री मोतीलाल अवस्थी) जीवित थे.

गाँव की यादों की शुरूआत तब से होती है, जब मैं पांच या छह साल की रही थी. जब मेरी उम्र करीब दस साल की थी, तब मेरे ताऊ जी का निधन हो गया, और उसके बाद गाँव छूट गया.

उत्तर-प्रदेश के ललितपुर जिले में है मेरा पुश्तैनी गाँव- "गुढ़ा" अब ये गाँव , गाँव जैसा नहीं रहा लेकिन जिस समय मैंने देखा, उस समय एकदम किस्से-कहानियों जैसा सुन्दर गाँव था...... गाँव में मेरे दादा बहुत रसूख वाले थे. सो वही पुश्तैनी दबदबा ताऊ जी का भी क़ायम था. हालाँकि वे थे भी बहुत विशाल ह्रदय, परोपकारी. बहुत प्यार करने वाले. तो बड़ों के रसूख के चलते हम बच्चे भी सिर कुछ ज्यादा ही ऊंचा उठा के चलते थे.

गाँव में हमारा घर हवेलीनुमा है. इस घर के अन्दर चार आँगन और एक बड़ा सा बगीचा है. पूरा घर दोमंजिला और कहीं-कहीं तीनमंजिला है. घर के बाहर मुख्यद्वार के दोनों तरफ दो बड़े-बड़े चबूतरे, और एक शिवमंदिर. पीतल की नक्काशी वाले भारी दरवाज़े, जिन्हें खोलना हमारी ताकत के बाहर की बात थी. कमरों में झरोखे सरीखी ऐसी खिड़कियाँ , जिनमें एक आदमी के लायक बिस्तर बिछाने की गुंजाइश थी.

धीरे-धीरे इस घर के सारे लड़के नौकरी और पढाई के चक्कर में बाहर चले गए. वहां रह गए हमारे ताऊ जी और घर परिवार के बुजुर्ग सदस्य. उस ज़माने में सगे और चचेरे जैसा भेद नहीं किया जाता था, सो हमें मालूम था, कि मेरे पापा ग्यारह भाई और एक बहन हैं. यानि मेरे दस चाचा और एक बुआ!!!!! अनन्य सुंदरी बुआ.

पूरे साल ताऊ जी अकेले गाँव में रहते, लेकिन गर्मी की छुट्टियां होते ही सबके लिए उनका गाँव पहुँचने संबंधी फरमान जारी हो जाता. क्या मजाल कि कोई एक भाई भी न पहुँचने की हिमाकत करे. अब सोचिये, दस चाचा, दस चाचियाँ मेरे मम्मी पापा और उन सबके ३३ बच्चे!!!!! कैसी बमचक मचती होगी? भला हो उस बड़े घर का, वर्ना कहाँ टिकते सारे लोग?

गरमी की दोपहर हम बच्चों के लिए वरदान की तरह होती थी. बड़े दीदी-भैया लोग हम छोटों के कर्णधार थे. दिन में उधर बड़े लोग सोये, इधर बच्चा पार्टी दबे पाँव घर से बाहर. कोई न कोई बैलगाड़ी खेत की तरफ जा ही रही होती , तो सारे बच्चे उस गाडी में लद जाते. बेचारा गाड़ीवान डरता-घबराता बार-बार बच्चों को न जाने के लिए मनाता आखिरकार खेतों तक ले ही जाता. और खेत............ कोई आम के पेड़ पर चढ़ के आम तोड़ रहा है, तो कोई बोरिंग के मोटे पाइप से झर - झर गिरते पानी में नहाने ही लगता . धूप और लू से बेखबर..... खेत पर काम करने वाले सारे मजदूर परेशान कि यदि दद्दा (ताऊ जी) को पता चल गया कि हम खेत पर गए थे, तो उनकी खैर नहीं. शाम को बड़े लोग जागें, उसके पहले ही सारे बच्चे घर में व्यवस्थित हो जाते.
शाम को ताऊ जी साए बच्चों को घेरे में बिठा के गीत गवाते-

    हे भगवान्, हे भगवान्
    हमको दो ऐसा वरदान
    विद्या और कला हम सीखें,
    करें जगत में कार्य महान.


पकाने की लिए तैयार आम जब घर में लाये जाते , तो देखने लायक माहौल होता. गाड़ियाँ भर-भर के आम....... नीचे वाला एक लम्बा सा कमरा , जो खासतौर से आम के लिए ही था, बढ़िया से तैयार किया जाता. नीचे पत्ते बिछाए जाते, आम पूरे कमरे में भर दिए जाते और उन्हें बढ़िया से पत्तों से ढँक दिया जाता. आम के शौक़ीन मेरे दादा ने आम की कई किस्में अपने बगीचे में लगवाईं थीं.

उधर आम कमरे में भरे जाते, इधर हम बच्चे उनके पकने का इंतज़ार करने लगते. रोज़ कमरे के दरवाज़े पर लटकते ताले को देखते.....पकते हुए आमों की खुशबू लेते. और जब आम पक जाते तब तो क्या कहने....रोज़ आम की दावत होती.
तरह- तरह के खेल खेले जाते, जिनमें बड़े भी शामिल होते. रात को छत पर सबके बिस्तर लगते, और ताऊ जी कहानियाँ सुनाते........ सात बहन चंपा, सोनजुही, और भी पता नहीं कितनी कहानियां...................

गाँव अब पहले से गाँव नहीं हैं. हमारे गाँव की ही तस्वीर बदल गई है. वहां सड़कें, बिजली, अस्पताल, स्कूल, इंटर कॉलेज, बसें, बाज़ार सबकुछ है. खेत सिमट गए हैं. बस्तियां बढ़ गईं हैं. कमोवेश यही तस्वीर अधिकांश गाँवों की है अब.

ये अलग बात है कि अभी भी बहुत से गाँव , जो जिला मुख्यालय से दूर हैं, मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं. उनका विकास होना ही चाहिए, लेकिन मेरा स्वार्थी मन तो देखिये, बीस साल पहले गाँव गई थी, और वहां शहरी संस्कृति की दस्तक के बावजूद मेरी आँखें उसी पुराने गाँव को ढूंढ रहीं थीं, जहां दूर तक फैले खेत, हरियाली , पेड़ों की घनी छाँव, और उन लोगों को , जो दूर से पहचान के दौड़े चले आते थे, ये कहते हुए कि "अरे नन्हें दद्दा ( मेरे पापा) आ गए....... "
वंदना अवस्थी दूबे, 
सतना मध्य प्रदेश

5 comments:

वन्दना अवस्थी दुबे said...

बहुत बहुत धन्यवाद, पोस्ट प्रकाशित, शामिल करने के लिये. सम्वाद मीडिया सफलता के नित-नये आयाम स्थापित करे. शुभकामनाओं सहित.

इस्मत ज़ैदी said...

गाँव की गलियां ,बाग़ के झूले ,सब कुछ कितना प्यारा था
मैं बचपन जी लेता हूं , जब करती है अटखेली धूप

इस ख़ूबसूरत रचना के लिये आप को शुक्रिया और वंदना जी को बधाई

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

गाँव कि यादें अच्छी लगीं ...

रचना दीक्षित said...

गांव कि याद और उसमे खो जाना अच्छा लगा

सुनील गज्जाणी said...

namaskaar !
bahut bahut badhai , hume bhi khoob surat yadon me le jaane ke liye ,
sadar